Tuesday, November 1, 2011

किसानों ने निकाली मरोड़ीये क़ी मरोड़!!

"बी.टी.कपास में मरोड़ीया रहें जा गा। मनै के कह सै?" कहना सै जिला जींद में निडानी गावं के उर्जावान किसान एवं कुशल तरखान श्री आशीन का। पिछले साल मिले कपास के अप्रत्याशित ऊँचे भावों से वशीभूत आशीन ने भी इस साल जिन्दगी में पहली बार बी.टी.कपास की बिजाई कर बेमतलब भोई मोल ले ली। जमीन कमजोर, पानी खराब और बीज बिगड़ैल। कित पार पड़े थी? तीन बार बिजाई करनी पड़ी। तीन हज़ार रुपये का तो बीज ही आया तीन पैकट। किराया भाड़ा व् बुवाई के लगे सो अलग। इस साल भी अच्छे भाव की आश ने आशीन के हौंसले पस्त नही होने दिए। सपने में ग्याभन आशीन आखिरकार अपने इस एक एकड़ कपास के खेत में कपास के 2054 पौधे उगा पाया। तीन पत्तिया ना सही पौधों के चार पत्तिया होते ही नलाई भी शुरू करदी। इसकी कपास में सफ़ेद-मक्खी नाम-मात्र की होने के बावजूद भी देखते-देखते ही 70% पौधों पर पत्ते जरुरत से ज्यादा हरे होने लगे, इन पत्तों की छोटी-छोटी नसें मोटी होने लगी, पत्तियां ऊपर की तरफ मुड़कर कप जैसी दिखाई देने लगी और कहीं-कहीं इन पत्तियों की निचली सतह पर पत्तिनुमा बढ़वार भी दिखाए देने लगी। कृषि ज्ञान केंद्र के विशेषज्ञों से संपर्क किया तो मालूम हुआ कि इस खेत में तो कपास की फसल आरंभिक काल में ही पत्ता-मरोड़ रोग से ग्रसित हो गयी है। अब तो इसमें फूल, फल व् टिंडे लगने मुश्किल हैं। दो-चार पौधे प्रभावित होते तो उन्हें उखाड़ कर जलाया या जमीन में दबाया जा सकता था और इस रोग को फैलने से रोका जा सकता था। इतना ज्यादा प्रकोप होने पर तो कपास के इस खेत को जोत कर, बाजरा की बिजाई करने में ही भलाई है। इतना सुनते ही आशीन की तो पैरों नीचे की जमीन ही खिसक गयी।
मरोड़ीये का थपड़ाया आशीन अगले ही मंगलवार को चितंग नहर के राजबाह़ा न.3 की टेल पर लगने वाली किसान खेत पाठशाला में पहुँच गया। कीड़े पहचानने, गिनने व् नोट करने में क्यूकर मन लागै था। मौका सा देख कर मनबीर को न्यारा टाल लिया अर अपनी कपास की फसल में आये असाध्य रोग "मरोड़ीये" का इलाज पुछ्न लगा. मनबीर कौनसा भला था, हं कर कहन लगा, " आशीन, मरोड़ चाहे मानस में हो, डांगर में हो या पौधे में। ना तो टूटन की होती अर ना आपां नै इसे तोड़ने की कौशिश करनी चाहिए। फसल को खुराक दे दे जै कुछ बात बन जा तो। एक लीटर पानी में 5.0 ग्रा जिंक सल्फेट, 25 ग्रा यूरिया व् 25 ग्रा डी.ऐ.पी.के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करते रहना। हर 10 वें या 12 वें दिन फिर से करते रहना। और कोई पंगा मोल मत लेना।"
हरियाणे में फंसा होया मानस सबके नुख्से आजमा लिया करै। आशीन भी अपवाद न था। पहले छिड़काव के तीसरे दिन से ही आशीन को उम्मीद बंधने लगी। एक के बाद एक, पूरे पांच स्प्रे ठोक दिए। पहली चुगाई में छ: मन कपास उतरी। पिछले सप्ताह कृषि विज्ञानं केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिकों डा.आर.डी.कौशिक व् डा.यशपाल मलिक ने भी इस खेत का दौरा किया था। मरोड़ीया से भयंकर रूप में ग्रसित पौधों को फलों से लद-पद देखर कर दोनों कृषि वैज्ञानिक भी हैरान थे। "कृषि विज्ञान की प्रस्थापनाओं के विरुद्ध आपकी इस जमीनी हकीक को इस दुनियां में कौन वैज्ञानिक मानेगा।", डा.मलिक के मुहं से निकला।
" डा.साहिब हमने किसी को मनाने अर मनवाने की कहाँ जरुरत पड़ेगी। म्हारा तो काम पैदावार से चल जायेगा और वो होने जा रही है। वो आप सामने देख ही रहे हो।" उपस्थित किसानों में से एक ने जवाब दिया।
"इन प्रकोपित पौधों पर टिंडों की गिनती करो तथा कुछ सामान्य पौधों पर भी।", डा.कौशिक ने सुझाव दिया।
आशीन ने तुरंत बताना शुरू किया की सर जी, इस खेत में 2054 पौधें हैं। पौधों पर कम से कम 19 टिंडे व् ज्यादा से ज्यादा 197 टिंडे हैं। औसत निकलती है ६९.3 टिंडे प्रति पौधा। पांच फोहों का वजन 22 ग्राम यानि की 4.4 ग्राम प्रति फोहा। इस हिसाब से तो 16-17 मन कपास होने का अनुमान है।", उत्साहित आशीन रके नही रुक रहा था।
मनबीर ने आगे बात बढाते हुए इसी गावं के कृष्ण की भी सफल गाथा सबको सुनाई। कृष्ण के खेत में भी फसल की शुरुवात में ही मरोड़ीया आ गया था। उसने भी यही किया जो आशीन ने किया और उसके खेत में भी 1507 पौधों से 18-20 मन की कपास होने की उम्मीद है। पौधों के हिसाब से तो इस पैदावार को ठीक-ठाक कहा जा सकता है।

Sunday, September 18, 2011

मेक्सिकन बीटल

बीटल! जी हाँ, यह वही निरामिष कीड़ा है जो दुनिया भर में कांग्रेस घास की पत्तियां खाने के लिए मशहूर है। उसी कांग्रेस घास की जो कभी आज़ादी की सुखद: सांस लेने पीएल-480 स्कीम के तहत आयातित मैक्सिकन गेहूं के बीज के साथ भारत में आया था। गणतंत्र में घोडा हो या घास, सभी कों फलने-फूलने के समान अवसर होते है। इन्ही अवसरों का भरपूर लाभ उठाते हुए यह घास भी हिंदुस्तान में चारों ओर छा गया। बस्ती हों या बीहड़, उर्वरा हों या बंजर, सार्वजनिक पार्कों, आवासीय कालोनियों, बगीचों, सडक के किनारों, कच्चे रास्तों, नहर, नालियों व रेलवे पटरियों आदि के साथ-साथ लाखों हेक्टेयर भूमि पर कब्ज़ा जमा कर घोड़ों कों पटकनी देने में सफल हुआ है। अब अपने देश के तरक्की-पसंदों कों इस घास की अप्रत्याशित प्रगति कहाँ पसंद आनी थी? इसीलिए इसे नियंत्रित करने के चहुमुखी प्रयास हुए। एक से बढकर एक जहरीले खरपतवारनाशियों का सहारा लिया गया, इसे समूल नष्ट करने के लिए जनअभियान चलाये गये। पर सब बेकार और यह घास हमें यूँ ही ठोसे दिखाता रहा। हम भी कहाँ हार मानने वाले थे? इस घास पर अंकुश लगाने के लिए एक मेक्सिकन बीटल ढूंढ़ लाये। जीवों के नामकरण की द्विपदी प्रणाली में इसे Zygogramma bicolrata कहा जाता है। वैसे तो इस पर्णभक्षी भुंड की दुनिया में 100 के लगभग प्रजातियाँ पाई जाती हैं पर हम्में तो अपने यहाँ जींद के आस-पास केवल एक ही प्रजाति नजर आई हैं। कृषि विज्ञानं केंद्र, पिंडारा के वरिष्ठ विज्ञानिक एवं खरपतवार विशेषग डा.यशपाल मलिक के पास माचिस क़ी डिब्बी में भी इस जाईरोयी बीटल क़ी इसी प्रजाति को ही देखा है।

Thursday, September 15, 2011

बी.टी.कपास का जहर- पक्षपाती जहर

आज सुबह डांगर-ढोर की कर कै अर नीता कै हाथ क़ी चाय पीकर घूमने लिकड़ा था अक गाम कै गोरै तानु लम्बरदार से हेट-फेट हो गयी। नाम तो तानू का महा सिंह की माँ नै बड़े चाव से अपने पोते का कप्तान धरा था। टेमसर सरकारी स्कूल में भी घाल्या। बात-बात पे सवाल अर बाल की खाल तारण पै लाग्या रहा। सवाल दर सवाल करन आला बालक किसनै सुहावै था। स्कूल में अध्यापकों अर घर पै घरआलाँ तै कप्तान भी नही ओटा गया। नतीजा यू लिकड़ा अक कप्तान फौज में कप्तान भर्ती होना तो दूर का सपना सिपाही भर्ती होन जोगा भी नही पढ़ पाया और इस दुनिया में चढ़ते सूरज को सलामी देने वालों नै इस कप्तान को कप्तान भी नही रहन दिया बल्कि तानू बना कर छोड़ दिया। पर समय अर स्थान की बलवानी नै तानू को लम्बरदार बनने का मौका तो दे दिया। इतना कुछ खो कर भी तानू नै सवाल पूछन अर बहस करन की बाण नही छोड़ी। आज तड़के ऐ भी भिड़ते ही न्यूं बोल्या," रै कीट-ज्ञानियों न्यू तो बताओ अक इस बी.टी.कपास कै कण-कण में मौजूद यू जहर रस चूसक कीड़ों को क्यों नही ख़त्म करता? जै चर्वक कीटों की तरह चूसक कीटों को भी मार देता तो जमा ऐ जीस्सा आ जाता।"
तानू की सुन कै, मैं कहन लगा अक तानू यू जहर तो सुंडियों को ही मारता है जबकि कपास में चर्वक कीड़े तो और भी घने ऐ सै।
इतनी तानू पै कीत उट्टे थी। झट टाड कै पड़ा, "रै बोलीबुच्चो, बी.टी.के इस जहर नै तो आपनी पुराणी कहावत(भैंस बड़ी की अक्ल) भी झूठी गेर दी। भैंस तो इतनी सयानी हो गयी कि बी.टी.कपास के बिनौले को खुश होकर नही खाती। बालकों कि तरह भलो-भलो कर खुवाना पड़ता है। घरां सोपे में रखी बी.टी.कपास में लोट मारण तै तो चूहे भी परहेज़ रखते हैं। फेर थाम क्यों सुंडियों अर चर्वक कीटों के फेर में पड़ रे सो।"
इतनी सुन कै मेरी तो खोपड़ी घूम गी अर माफ़ी मांग कै जंगल-पानी तै निफराम होन ताहि खेताँ क़ी तरफ सरक लिया।
गामाँ में इब बणी तो रही नही। निफराम होण का ठिकाना भी बी.टी.कपास कै खेत तै न्यारा कित पावै था।
समय सही था अर स्थान भी माकूल था ऊपर तै बीड़ी पीन का हरियाणवी फार्मूला भी ला कै देख लिया पर आज तो तानू के ताने आगै सब फेल होगा। लींड जमा सीकर में चढ़ग्या। सारे बाणे बजा कै निराश हो घरां पहुँच कै चुपचाप बैठक में लेट गया।
रह-रह कै तानू की बात ध्यान में आवै। पड़े-पड़े कपास कीटतंत्र के पिछले चार साल पर नजर मारी तो पाया अक इन चार सालों से शहद की देशी मक्खियों ने बी.टी. कपास के फूलों पर नही बैठने का पंचायती फैसला कर लिया हैइटालियन मक्खियों के नेतृत्व ने भी गणतंत्री सरकारों की तर्ज़ पर अपनी प्रजाति को इन बी.टी.कपास के फूलों से दूर रहने की चेतावनी जारी कर राखी हैपहाड़ी म्हाल की मक्खी जरुर नज़र आई सै पर इनकी संख्या भी लगातार कमी होती देखी जाने लगी है। कहने वाले तों न्यूँ भी कह दे सै अक माल की मक्खी तो वैसे ही कम हो रही सै। इनका बी.टी.कपास तै के लेना-देना। पर हमने तो कपास के खेत में ही सांठी के छोटे-छोटे फूलों पर इन मक्खियों को परागकण व् मधुरस के लिए मेहनत करते खूब देखा है। तेलन, चैफर बीटल, भूरी पुष्पक बीटल व् स्लेटी भुंड जैसे शाकाहारी चर्वक कीटों की संख्या भी लगातार घट रही सै। कुबड़े कीड़े अर अर्ध-कुबड़े कीड़े भी बी.टी.कपास की फसल में जमा ऐ कम पावै सै। जिब विचारों की चैन नै क्यूकर ऐ भी थमन का नाम नही लिया तो इगराह गाम में मनबीर धोरै फोन मारा अर आप बीती सुनाई। मनबीर नै पूरी तस्सली तै बात सुनी अर न्यूं बोला, "रणबीर, जमीनी तथ्यों पर आधारित हकीकत को जितनी जल्दी मान लो उतना ही अच्छा, बेमतलब उधेड़बुन में रहन की जरूरत नही दोस्त। कपास की फसल में कीटों का अपने किसानों द्वारा त्यार पिछला पाँच साला लेखा-जोखा तो तानू अर तेरी बात नै जायज ठहराव सै। सही सै अक यू बी.टी.प्रोटीन रस पीकर गुज़ारा करने वाले कीड़ों को तो कुछ नही कहता पर चबा कर खाने वाले कीड़ों के लिए तो जहर ही है। पर यू आपां नै जरुर याद रखना चाहिए अक जहर के घातक प्रभावों का कम-फालतू असर जहर की मात्रा और शारीरिक वजन के हिसाब से ही होता है।" फोन काट्या ऐ था अक बालका नै रोटी खान खातिर आवाज़ मारली। हालाँकि रोटी पौन में नीता मेरी माँ का मुकाबला करती है पर आज तो टूक हलक तै नीचै उत्तरण का नाम नही लेन लागरे। जैसे-तैसे दो-एक रोटी पेट में सुड़ी अर फेर बैठक में आ कर लेटगा। भतेरी सोची अक कुण-कड़े की बी.टी.अर किसा जहर? तू क्यों सोच ठारया सै। जो देश गेल बनेगी-वा तेरी गेल बन जागी। खा-पी अर चादर तान कर सो। पर चादर तानी तो कौन गयी। दिमाग बार-बार सीलोन आला बैंड पकड़े गया। तिनकै के आसरै की आस में डा.दलाल धौरे फोन भिड़ा लिया। यू डा.पदवी आला सै अक म्हारै महा सिंह के कप्तान की ज्यूँ कप्तान सै- इस बात का मनै भी नही बेरया।
फोन ठाते ही डा.बोला, " हाँ! रनबीर बोल। के बात सै।"
बात के सै डा.साहब, मै तो इस बी.टी.नै बांस दिया। या के बीमारी पलै पड़गी, कुछ समझ नही आंदा।
दूसरी साईड तै डा का जवाब आया, "रनबीर इसमें समझन आली के बात सै। हमारी जमीन में टी.बी.आले बैक्टीरिया की जात बेसिलस म्ह की प्रजात थिरुंजिनेंसिस आला
बैक्टीरिया पाया जाता है. इसी बैक्टीरिया से जहर का निर्माण करने वाला एक विशेष खरना-अणु निकाल कर कपास के पौधे में डाल दिया गया है। इस जहरी खरना-अणु का नाम धरा गया-- cry1. अब तो बहुत सारे ढूंढ़ लिए गये पर नाम कै आगै सबकै cry ही लगता है। अब इसनै बनाने अर बेचने वाले रोहा-रूहाट करेंगे या बरतनिये किसान धुहाथड़ मारकै रोवेंगे- इसका मनै भी नही बेरया।"
मैं या कौन पुछदा डॉ.साहब, मैं तो न्यूँ पुछू था अक यू बी.टी.जहर पक्षपाती क्यूँ सै? इसका रासायनिक सूत्र के सै?
"इसका जवाब तो मेरे पास नही है, रणबीर। इंतजार कर, कोई ज्ञानी-धानी फेसबुक पर तेरी इस पोस्ट को पढ़ कर जवाब दे-दे। या फेर डा.वंदना शिवा, डा.सुमन सहाय या डा.देवेन्द्र शर्मा जैसे धुरुन्धरों के पास इधर-उधर से ई-मेल ढूंढ़कर इस सवाल का सही-सही जवाब पता कर ले।", डा। दलाल ने तो अपना पल्ला झाड़ लिया.

Thursday, September 1, 2011

बाजरे की सिर्टियों पर गुबरैले का बसेरा



बीते कल किसी काम से जींद शहर में किसी के घर गया था। चाय पीना लाजिमी था और इससे भी लाजमी था चाय बनाने में समय का लगना। इसी समय मेरी नजर पड़ी उत्तरी भारत के सम्पूर्ण अख़बार दैनिक ट्रिब्यून पर। मुझे तो स्थानीय खबरे ही ज्यादा भाती हैं, भावें वे सतही क्यों ना हों। आज भी इस अख़बार का सीधे दूसरा ही पन्ना खोल लिया। ध्यान गया सीधे एक शीर्षक पर," बाजरे की फसल पर अज्ञात बीमारी का प्रकोप।" पूरी खबर पढ़ कर खोपड़ी घूम गयी। अक बाजरे की सिर्टियों पर बैठा तो सै एक चमकीले हरे रंग का कीड़ा। पर बतान लागरे सै अज्ञात बीमारी। वा! रे, म्हारे हरियाणा अर म्हारी संस्कृति। इसमें किसका के खोट? मै खुद मेरी बहु नै के बेरया कितनी बार बात-बात पै बीमारी कह दिया करूं। जिब मेरा यू हाल सै अक बहु अर बीमारी में फर्क नही कर पांदा तो फेर इनका के खोट जै कीड़े अर बीमारी में फर्क नही कर पावै तो?
ख़ैर ना तो किसानों को परेशान होण की जरुरत अर ना अधिकारीयों को अनजान रहने की जरुरत। यू कीड़ा जो बाजरे की सिर्टियों पर बैठा दूर तै एँ नजर आवै सै चर्वक किस्म का एक शाकाहारी गुबरैला सै। बाजरे की सिर्टियों पर यह गुबरैला तो काचा बुर(पराग) खाने के लिए आया है। आवै भी क्यों नही? इसनै तो भी अपना पेट भरना सै अर वंश वृद्धि का जुगाड़ करना सै। बाजरे की फसल में तो बीज पराये पराग से पड़ते हैं। अ: इस कीट द्वारा बाजरे की फसल में पराग खाने से कोई हानि नही होगी। बल्कि जमीन में रहने वाले इसके बच्चे तो किसानों के लिए लाभकारी सै क्योंकि जमीन में वे केंचुवों वाला काम करते हैं। अत: इस कीड़े को बाजरे की सिर्टियों पर देखकर किसे भी किसान नै अपना कच्छा गिला करण की जरुरत नही अर ना ऐ किते जा कर इसका इलाज़ खोजन की।
आपने हरियाणा में ज्युकर बहुत कम लोगाँ नै मोरनी पै मोर चढ्या देखा सै न्यू ऐ यू कीड़ा भी शायद बहु ही कम किसानों व् कीट वैज्ञानिकों नै ज्वार की सिर्टियों पर देखा सै। असली बात तो या ऐ सै अक यू कीड़ा सै भी ज्वार की फसल का कीड़ा। पर कौन देखै ध्यान तै ज्वार की सिर्टीयाँ नै।
इस कीड़े को खान खातिर म्हारे खेताँ में काबर, कव्वे व् डरेंगो के साथ-साथ लोपा मक्खियाँ भी खूब सैं। बिंदु-बुग्ड़े, सिंगू-बुग्ड़े व् कातिल-बुग्ड़े भी नज़र आवैं सैं। हथजोड़े तो पग-पग पर पावे सै। यें भी इसका काम तमाम करे सै। गाम कै गोरे से इतनी लिखी नै बहुत मानन की मेहरबानी करियो।

Saturday, July 23, 2011

सुन्ना पड़ा निडाना गाम का गोरा



कपास की बीजाई अर वा भी कोडे होकर। देख्या इसा नजारा अक किसे कंपनी नै बी.टी.कपास की बीजाई के बहाने म्हारे सारे किसान कोडे कर लिए हों। मैं तो इस शर्मनाक स्तिथि से बचने के लिए अब तक देशी कपास की ही बो लिया करता। न ज्यादा उर्वरक अर न ज्यादा खेचला। कीटनाशकों के इस्तेमाल का तो मतलब ही नही फेर भी 27-28 मन किले की लिकड़ आया करदी। पर पिछले साल चुचलये की तरह आये कपास के भा नै मेरी अनीता का मन भी मोह लिया। अर वह न्यून कहन लगी, "जाये रोये सारा देश बी.टी.बोण लाग लिया। अर तू इब तक इस देशी के पाछै पड़ रह्या सै।" चूल्हे धोरै के मैदान का चतुर खिलाड़ी, मैं कदे नही रहा। इसीलिए मैने भी इबकै एक किले में बी.टी.कपास की बीजाई कर डाली। भला हो कृषि तकनीशियनों का जिन्होंने कपास बोने की मशीन इजाद कर डाली। इसी मशीन का प्रयोग करते हुए, मैं बीजाई के समय कोडा हों ते बच पाया।
पर सची बताऊँ अक मेरे इब तक भी बीज के नाम पर 450 ग्राम बिनौले के लिए 1000 रुपये जेब हल्की होना पच नही पाया। म्हारे जींद में बिनोले का भाव 1800-2000 रुपये सै पर
इस बी.टी.कपास के बीज वाला बिनोला तो 250000 रुपये का पड़ेगा। इसा क्सुता जुलम मेने तो अपनी जिंदगी न तो सुना था आर न देखा था। बी.टी.कपास के बीज का भाव तय करने वाले सांड को नाथ घालने वाला समेत सरकार के मैने तो कोई दूर-दूर तक नजर आता नही। अत: बीज के भाव तो कम होने नही अर ना अनीता की बात मेरे पै मोड़ी जा। सांप भी मरज्या अर लाठी भी नही टूटे के चक्र में सूख कै माड़ा होगा वर्ना मेरी के फैक्ट्री बंद होगी।
न्यूँ सोचा करदा अक जै इन सात समुंदरी पर बी.टी.बीजो को कपास में घरा ए लुढाले अर उननै बो देवां तो के फर्क पड़े। म्हारे कृषि वैज्ञानिक न्यूँ कहं सै अक रणबीर बी.टी.आले बीज तो हाईब्रिड हों सै। इन को तो हर साल बाज़ार से खरीद कर ही बोना होता है। नही तो ये पैदावार नही देंगे।
भला हो भैरों खेडा के राजेश का जिसने इस साल पिछले साल की कपास में से ही बिनौले निकाल कर अपने खेत में चुबो दिए। एक किले में दो किलो के हिसाब से। अर शेर ने बो भी दिए पुरे ढाई किले। काट्या क्लेश,
काट्या रोग।

Wednesday, March 30, 2011

किसान आयोग, हरियाणा को गाम के गोरे से।

मुख्य समस्याः कीट नियंत्रणLink

पहले कीट नियंत्रण फिर कीट प्रबंधन और अब समेकित कीट प्रबंधनः समय के साथ जुगलबंदियों का यह क्रमिक विकास जहाँ एक तरफ अपनी असफलताओं को छुपाने का एक बेहतर प्रयास है वहीं दूसरी तरफ यह कीट समस्या के निरंतर विकराल होने की तरफ भी इशारा करता है।

वस्तुस्थितिः कपास की फसल में 1990 से लेकर 2001-02 तक अमेरिकन सूंडिसफेद-मक्खी का कहर किसी से छुपा हुआ नहीं है। दि ट्रिब्युन को 24-11-2001 के अपने संपादकीय में इसको साझली पराजय व साझली शर्म कहने में कोई हिचक नही हुई थी। इसी फसल में 2007 से सात समुन्दर पार का एक पँखविहिन कमजोर सा मिलीबग नामक कीड़ा अपना लगोंट घुमा रहा है। कपास में ही खरीफ 2009 में लाल मत्कुणश्यामल मत्कुण जैसे माइनर से पेस्ट कहलाने वाले कीड़े न जाने कहाँ से प्रमोशन पा कर पिछले साल मेजर बन बैठे थे।

कीड़ों के मामले में धान जैसी अतिसुरक्षित फसल में भी फुदकों ने किसानों की जान निकाल रखी है।

आज मुझे यह स्वीकारने में कोई झुंझलाहट नही कि मैं स्वयं कपास की फसल में स्लेटी भुंड को ही सफेद-मक्खी समझता था। मैं समय-समय पर विभिन्न कीटनाशकों का इस्तेमाल कर सफेद-मक्खी के नाम पर स्लेटी भुंड को ही खत्म कर खुश होता रहा। खरीफ 2007 में भी दैनिक पंजाब केसरी में एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक का यह ब्यान पढ कर कि मिलीबग धरती में 590 अंडे देता है, मैं इस कीट के नियंत्रण के लिये हर पांचवें-छठ्ठे दिन धरती की सतह पर ही स्प्रे करता रहा था। जबकि फिनोकोकस सोलेनोप्सिस नाम का यह मिलीबग तो थैली में अण्डे देता पाया गया।

आज मुझे कपास में हानि पहुँचाने वाले 26 किस्म के कीटों की जानकारी है। इसी फसल में पाये गये 55 किस्म के मांसाहारी कीटों एवं कीटाणुओं( 4 किस्म के परजीव्याभ, 47 किस्म के परभक्षी, एक परजीवी व 3 किस्म के फफुंदिय रोगाणु) की भी कमोबेश जानकारी है। परिणामस्वरुप पिछले चार साल से मुझे किसी भी फसल में किसी भी कीटनाशक का इस्तेमाल करने की आवश्यकता नही पड़ी। मेरी जानकारी में जिला जींद में ही तीन दर्जन से ज्यादा किसान है जिन्होंने पिछले तीन साल से अपनी किसी भी फसल में कीट नियंत्रण के लिये कीटनाशकों के प्रयोग की आवश्यकता ही नही पड़ी। अतः कीटों की समस्या के इस चक्रब्यूह से निकलने का रास्ता बहुत ही सीधा, सरल व आसान है। और वह है किसानों से लेकर वैज्ञानिकों तक सभी को कीटों की व्यापक पैमाने पर पहचान एवं जानकारी।

समस्या समाधान के लिये सुझावः

1. कृषि विश्वविद्यालय के कीट विभाग व कृषि निदेशालय के पास प्रदेश में बोई जाने वाली प्रत्येक फसल में पाये जाने वाले सभी कीड़ों का डाटा-बेस हो। प्रत्येक कीट की सभी अवस्थाओं के फोटों एवं जानकारी हो, परिवेश बारे जानकारी हो, खाद्य-विविधता एवं क्षमता की जानकारी हो, प्रजनन क्षमता की जानकारी हो।

2. कृषि विकास अधिकारी का कार्यालय इन्टर-नैट से जुड़ा हो जहाँ किसान इन कीटों के बारे में जानकारी ले सके।

3. प्रत्येक गांव की हर नम्बरदारी में इन्टर-नैट से जुड़े कृषि सेवा केन्द्र खोले जाये।इनके संचालन के लिये आंगनवाड़ी वर्कर की तर्ज पर निश्चित मानदेय पर कृषि सेवक नियुक्त किये जाए। इनमें से आधे कृषि सेवक महिलाएँ हो।

4. कृषि विभाग की पौध संरक्षण शाखा में नियुक्त कृषि विकास अधिकारी के लिये अपने क्षेत्र में हर फसल की नविनतम एवं पूर्ण पारिस्थितिकि तंत्र का ब्यौरा तैयार करना आवश्यक हो। इसके लिये उन्हें आवश्यक औजार व मानव संसाधन उपलब्ध करवाये जाये। इस जानकारी को तुरन्त जिले के कृषि अधिकारियों एवं कृषि सेवकों को उपलब्ध करवाया जाये।

5. कृषि विश्वविद्यालय व कृषि निदेशालय की वेब-साइटस् पर किसानों के लिये एक कोना विकसित किया जाये जहाँ किसान अपनी समस्या (कीट) मय फोटो के पेस्ट करके इस के बारे में जानकारी हासिल कर सके और अपनी समस्या का सही हल जान सके।

6. हरियाणा प्रदेश के सभी राजकीय विद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले पर्यावरण के कोर्स में कीटों को भी शामिल किया जाये।

7. हरियाणा प्रदेश के देहात स्थित सभी राजकीय विद्यालयों में छठ्ठी से लेकर दसवीं तक कृषि की पढ़ाई अनिवार्य हो। इन्ही विद्यार्थियों में से केवल उनकों जिनके पास प्लस टू में भी कृषि ऐछिक विषय हो आगे कृषि विश्वविद्यालयों में उच्चतर अध्यन के लिये दाखिला मिले।