फाग्गन उतरने को है। जुम्मा-जुम्मा चार दिन बचे हैं। हमारी सरसों क़ी फसल पक कर तैयार है। इसीलिए आज मैं और नीता अपनी सरसों क़ी कटाई करने सुबह ही खेत में पहुँच गये। हालाँकि थोड़े मानसा में बरकत घाट होया करे। फेर भी दोनों जनां नै हांगा ला कै जोटा मारया। एक ही झटके में दो हलाई तार कै छोटी सी शीशम क़ी छाँ में आराम फरमाने लगे। इतने मे ही नीता क़ी नजर कटी हुई सरसों क़ी हलाई में खड़े अड़ंगे पर पड़ी। अडंगा म्हारै खरपतवार नै ही कहा करे। मनै भी फ़ात में नजर मारी तो यू अडंगा बिघ्न का खड़ा था। मन ही मन में ब्होत पछतावा हुआ अक मनै यू अडंगा क्यों नही दिखाई दिया। ख़ैर इब पछतान का के लाभ। खड़ा हुवा और इस पौधे के नजदीक लग कर देखा तो यह हरे रंग क़ी बजाय भूरा व् हल्का गुलाबी सा दिखाई दिया। इसके फूलों क़ी पंखुड़ियां हल्के जामनी रंग क़ी। मेरी तो समझ तै बाहर सै यू अडंगा। हो भी क्यों नही, हमनै तो जिन्दगी में पहली बार देखा सै यू। एक-दो डोले के पड़ौसी से भी पूछा। पर कुछ ना बेरा पाट्या। सबका एक ही उत्तर कि पहल्यां तो देखा नही। इतने में घूमते-घूमते रामफल का दीपक भी आ गया। तेली नै तेल की अर मस्सदी नै खल की। भिड़ते ही दीपक तै भी इस अड़ंगे बाबत पूछन लगे। दीपक ने बताया अक काका यू तो सरसों की फसल का खरपतवार सै। दादरी के एरिया में खूब होया करै। बेबे की ससुराल में मनै खूब देख राख्या सै।
इतनी सुन कै तो मनै फटाफट डा.सुरेन्द्र दलाल के पास फोन मारा- डा। साहब यू सरसों में के नया राशा भेज दिया। दीपक तो इसनै खरपतवार बतावै सै। "सही बतावै सै दीपक।" डा.दलाल नै सहजता से जबाब दिया। " रणबीर यू सरसों क़ी फसल का खरपतवार सै। आज ही हमनै भी इस खरपतवार को पहली बार निडानी क़ी थली पर टेकराम, सतबीर, चाँद, महाबीर व् जयभगवान क़ी सरसों के खेतों में देखा सै। इस मौके पर उपमंडल कृषि अधिकारी, जींद डा.सुरेन्द्र मलिक भी साथ थे। वे अपने साथ इसका सैम्पल भी साथ लेकर गये हैं। रणबीर, यू खरपतवार परजीवी किस्म का सै। मतलब यह खरपतवार अपना भोजन नही बनाता। यू तो सरसों के पौधे क़ी जड़ों से ही अपनी खुराक खींचता है। बीज से पैदा होने वाला यह पौधा जमीन के अंदर रहकर ही सरसों क़ी जड़ों से अपना गुज़ारा करता है तथा वंशवृद्धि के लिए बीज पैदा करने के लिए ही जमीन से बाहर आता है। इसका बीज बहुत बारीक़ होता है तथा सरसों पकने से पहले ही खेत में बिखर कर अगली पीढ़ी के रास्ते खोलता है। या बात तेरी सही सै अक इसकी पंखुड़ियों का रंग हल्का जामनी होता है तथा दीपक क़ी या बात भी सही सै अक यह परजीवी खरपतवार सरसों क़ी फसल में दादरी, झज्जर, लोहारू, रिवाड़ी व् बावल आदि इलाकों में पाया जाता है। किसान इसे रुखड़ी के नाम से जानते हैं। इसे मरगोज़ा भी खा जाता है। नामकरण क़ी द्विपदी प्रणाली मुताबिक इसका नाम Orobanche aegyptica है।"
"फेर तो यू परजीवी पौधा सरसों में नुकशान करेगा!" मनै आशंका जताई।
"रणबीर, सरसों के पौधे क़ी जड़ों के साथ अपना कनेक्शन जोड़ कर अपने आश्रयदाता से खुराक व् पानी खींचता है। आधी उम्र तक जमीन में लुक कर तथा आदि उम्र में चौड़े-चुगान जमीन से सर ऊपर उठा कर। इब आप ही बताओ अक यू सरसों में भात भरेगा या नुकशान करेगा।"
"इसका इलाज के हो डा.साहिब।' मनै बीच में ही बात काटी।
फोन के उस सिरे से डा.दलाल क़ी आवाज़ आई,"रणबीर, इस खरपतवार ताहि इस धरती पर इब तक तो कोई खरपतवारनाशी बना नही। बीजमारी के जरिये ही इस पर काबू पाया जा सकता है। इस पौधे के बीज बन्ने से पहले ही इसे काट करके इक्कठा करे व् जला दे। या फिर इस खेत में इस परजीवी खरपतवार के आश्रयदाता सरसों क़ी बजे चन्ना, जों व् गेहूं क़ी फसल लेनी चाहियें। ना रहेगा बांस- न बजेगी बांसुरी।"
Monday, March 5, 2012
Thursday, February 16, 2012
निडाना में खेती-बाड़ी का पुश्तैनी धंधा स्वयं गाम जितना ही पुराना है। कुख्यात चालीसा(ई. सन. 1783), नब्बिया(ई सन 1833) एवं अनेक छोटे-बड़े(ई सन 1803, 1812, 1824, 1860-61, 1869-70, 1878, 1883-84) अकालों के थपेड़े खाते हुए इस राम भरोसे क़ी विविधतापूर्ण खेती को सन 1888 में नहरी सिंचाई के दर्शन हुए। इस साल ब्रिटिश हकुमत व् रियासत के मध्य 1875 में हुए एक समझोते के तहत पश्चिमी जमुना नहर क़ी हांसी ब्रांच से आठ रजबाहे निकाल कर सिंचाई के लिए जींद रियासत को सौंपे गये। इन राजबाहों में से तीन नम्बर के जरिये निडाना के खेतों में नहरी पानी से सिंचाई क़ी शुरुवात हुई। फिर भी सन 1899 व् 1938-39 के सालों में अकालों का सामना करते हुए भी इस मौसमी सिंचाई के बलबूते ही यहाँ के किसानों ने अपने कौशल और खुबात से जुलाना क़ी मंडी को चन्ने क़ी मंडी के रूप में ख्याति दिलाने में महती भूमिका निभाई| इस समय तक सावनी में ज्वार, बाजरा, ग्वार, कपास, सन, सन्नी, नील, मुंग, मोठ व् उड़द आदि फसले उगाने के साथ-साथ भूमि को साढ़ी रखने का भी प्रचलन था| इस मौसम में सामक, तख्डा, कुंदरा, चौलाई व् भांखड़ी, झोझरू आदि खरपतवार होते थे| साढ़ी में चन्ना, जौ, सरसों, मेथी, मसरी आदि फसलों के साथ थोड़ी बहुत गेहूं क़ी खेती भी होती थी| इस सीजन में प्याजी, बथुवा, पीली कंडाई, पसरमा कंडाई, बेल, चटरी, मटरी आदि खरपतवार होते थे| गावं की बणी में व् जोहड़ों पर पीपल, बड़, गुलर, नीम, कैंदु, कैर, केशु, कीकर, जांड-जांडी, शीशम, बेरी, ढ़ाक, हिंस, झाड़, आक, आदि रुख एवं बोझड़े आम दिखाई देते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति पर पहली योजना में ही सिंचाई सुविधाओं का विस्तार चाबरी मायनर के रूप में होने पर इस गावं के किसानों ने गन्ना उत्पादन में भी अच्छा-खासा नाम कमाया। एक एकड़ में सौ-सौ मन गुड निकालने लायक गन्ना पैदा करना सामान्य बात थी। पुरे गर्मी के मौसम में कसौलों के साथ ईंख नुलाना, बड़ा होने पर खदालियों के साथ नुलाना व् थापियों के साथ थेपड़ना एक आम नजारा होता था निडाना के खेतों में। क्या गज़ब का तरीका था खरपतवार नियंत्रण व् आल-संरक्षण करके गन्ने क़ी खेती करने का। हरियाणा और हरित-क्रांति के स्वागत क़ी तैयारियों के तौर पर 1960-62 में इस गावं में भी चकबंदी/ मुरबाबंदी हुई। लाल डोरे से बाहर क़ी भूमि को 25-25 एकड़ के मुरबों में बांटा गया व् इसके तहत किसानों क़ी अनेकों जगह बिखरी पड़ी जमीन को एक या दो जगह ही इक्कठा किया गया। यही वो समय था जब खेत के खेत रुखों से ख़ाली हो गये और साडी क़ी लामनी करते वक़्त लोग छाँव को तरसने लगे थे। ख़ैर 1966 में हरियाणा अस्तित्व में आया और इसी के साथ सिंचाई सुविधाओं पर निर्भर एवं उन्नत बीजों, रासायनिक उर्वरकों व् जीवनाशियों पर आधारित हरित क्रांति आने क़ी आहट इस गावं में भी सुनाई देने लगी| 1968 में बैलों वाले हल क़ी जगह लेने ट्रेक्टर गावं में आया और 1970 में बाजरे के हाईब्रिड बीज व् गेहूं क़ी कल्याण सोना किस्म व् गन्ना क़ी 1148 किस्मों का प्रचलन हुआ| इन्ही के साथ फसलों को नाईट्रोज़न देने के लिए रासायनिक उर्वरकों क़ी शुरुवात हुई। सत्तर के दशक में ही धान व् गन्ने क़ी फसल में कीड़े काबू करने के लिए राख़ में मिलाकर DDT व् BHC का प्रयोग होने लगा| 1980 के आते-आते हरित क्रांति के इन उन्नत बीजों के साथ-साथ गेहूं क़ी फसल में मंडूसी नामक एक नया खरपतवार किसानों को ठोसे दिखाने लगा व् कपास क़ी फसल में एक तरफ अमेरिकन सुंडी किसानों को खिजाने लगी व् दूसरी तरफ सफेद-मक्खी व् तेले जैसे नामलेवा से कीट प्रमोसन पाकर मेज़र बन बैठे| गन्ने क़ी फसल में पायरिला व् अनेकों किस्म के छेदक कीड़े यहाँ के किसानों को आतंकित करने लगे। यही से गावं में मंडूसी नियन्त्रण के लिए isoproturon नामक खरपतवारनाशी के प्रयोग क़ी शुरुवात हुई व् कपास में कीड़े काबू करने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल होना शुरू हुआ| 1982 में पहली बार गुलजारी ग्राम सेवक ने दो स्प्रे ढोलकी श्री दलीप सिंह व् रघबीर को कृषि विभाग क़ी तरफ से मुफ्त में ही उपलब्ध करवाई| इसके बाद तो गावं में रासायनिक उर्वरकों, खरपतवारनाशियों व् कीटनाशकों के खेती में इस्तेमाल क़ी बाढ़ सी आ गयी। निसंदेह नहरी व् नलकूपों से सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि के साथ इस हरित क्रांति से दलहनी फसलों को छोड़कर अन्य फसलों क़ी पैदावार में अच्छी-खासी बढौतरी हुई। हरित क्रांति के इस दौर में कृषि औज़ारो का भी तेज़ी से विकास हुआ व् प्रचलन बढ़ा। गेहूं गहाने के लिए फल्सी क़ी जगह टोका, घुघु आये और अब कम्बाइन व् रिपर आ गये| भूमि जोतने के लिए हल क़ी जगह हैरो, कल्टीवेटर व् रोटावेटर आ गये। बिजाई के लिए पोरे क़ी जगह सीड ड्रिल ने ले ली| इस दौर में थापी चूले में अर खुदाली कबाडियों के यहाँ पहुच चुकी हैं। रथ, बैलड़ी, रेहड़ू, बैलगाड़ी निडाना गाव से रफूचक्कर हो चुके हैं। ईंख पीड़ने वाले कोहलू क़ी जगह अब सुगरमिल ने ले ली। चकबंदी, सिंचाई सुविधाओं के विस्तार व् हरित क्रांति के इस दौर में कृषि औजारों के विकास ने यहाँ के किसानों क़ी सोच व् सामाजिक संबंधों पर भी व्यापक असर डाला। संयुक्त परिवार टूट कर एकल हो गये। घर-घर बैठक हो गयी पर पर इनमे बैठने वाले कोई नही। जिसके परिणामस्वरूप अनौपचारिक सामाजिक शिक्षा गायब। सामुदायिक कार्यों में रूचि ख़त्म। खेती में ल्हास का प्रचलन बंद, जोहड़ खोदने व् नाली समारने का काम ख़त्म सा ही हो गया। बड़े किसानों द्वारा छोटे किसानों को बंटाई पर जमीन देने क़ी बजाय अब बड़े किसानों द्वारा छोटे किसानों क़ी जमीन बंटाई पर या मुराफे पर ली जाने लगी है। खेत मजदूरी के लिए अब उत्पाद का हिस्सा देने क़ी बजाय रुपये देने का प्रचलन हो गया। एकल परिवार के चलते खेती में मानसों क़ी कमी हुई जिस कारण मजदूरी और मशीनरी पर खर्च बढ़ा। सिंचाई का पानी, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, फफुन्द्नाशक, खरपतवारनाशक, बीज, मोबाईल व् मोटरसाईकल हर किसान क़ी आवशयकता बन गये।
हरियाणा के अस्तित्व में आने के बाद अब तक निडाना क़ी आबादी में ढाई गुना वृद्धि हुई है जबकि दलहनी फसलों को छोड़कर अन्य फसलों क़ी पैदावार में पांच से पंद्रह गुना वृद्धि हुई है। इस दौर में हमें किसी कलमुहे अकाल का मुहं भी नही देखना पड़ा। फिर यह अतिरिक्त आमदनी गई कहाँ? इसका एक हिस्सा तो ब्याह-भात के खर्चों में, बच्चों क़ी फ़ीस में, मकान बनाने में, बिजली खर्च में, डाक्टर व् दवाओं के खर्च में तथा मोबाईल व् मोटरसाईकल का पेट भरने में चला जाता है जबकि इसका बड़ा हिस्सा कृषि में उत्पादन बढ़ाने के लिए ही खर्च हो जाता है। गावं में 2587 एकड़ में जुताई करने के लिए 1966 में एक भी ट्रेक्टर नही था आज 58 हैं। 1966 क़ी जीरो के मुकाबले आज 318 नलकूप हैं। 1966 में एक औंस भी रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नही होता था। आज 10 हजार कट्टे यूरिया व् 4500 कट्टे डी.ए.पी.खाद के इस्तेमाल होते हैं। आज औसतन प्रति एकड़ 1500 रूपये के हिसाब से 38 लाख रुपये तो नाशी रसायनों पर भी खेती में खर्च हो जाते हैं। कीटनाशकों पर इतने खर्च के बावजूद भी कीड़े नियंत्रित नही हो पाए। 20 वीं सदी के अंत व् 21 वीं सदी क़ी शुरुवात में अमेरिकन सुंडी ने कपास के कीट नियंत्रण अखाड़े में व् भूरे फुदके ने धान कीट नियंत्रण अखाड़े में किसानों क़ी कसुती कड़ लगाई। किसानों को फसल में कीटनाशकों के इस्तेमाल से कीट मरते भी नजर आते हैं और फसल में कीट बने भी रहते हैं। कीटों क़ी इस अंतहीन समस्या को किसानों क़ी सक्रीय भागेदारी से जड़मूल से समझने व् बेहतर कीट प्रबंधन के लिए सन 2008 कपास क़ी फसल में कृषि विभाग के सौजन्य से खेत पाठशाला क़ी शुरुवात हुई। इस पाठशाला में अहसास हुआ कि एक तो हमारे खेतों में कपास के पौधों क़ी संख्या बहुत कम है व् दुसरे हमें कीटों क़ी जानकारी भी बहुत कम है। इसीलिए पुख्ता कीट प्रबंधन के लिए कीटों क़ी जानकारी जुटाने के लिए 2009 में किसानों द्वारा अपने खर्चे पर "अपना खेत-अपनी पाठशाला" का आयोजन किया गया। जून से अक्तूबर तक हर मंगलवार को लगाई गई इस पाठशाला में कपास में पाए गये दो दर्जन शाकाहारी कीटों व् चार दर्जन मांसाहारी कीटों क़ी पहचान क़ी गई व् जानकारी जुटाई गई। इसी पाठशाला के दौरान एक नई जानकारी मिली कि जिंक-यूरिया-डी.ए.पी.का 5.5% के घोल का स्प्रे करने से कपास क़ी फसल में पोषण के अलावा छोटे-छोटे कीड़े भी मरते हैं। इस साल एक दर्ज़न किसानों ने बिना किसी कीटनाशक का इस्तेमाल किये कपास का सफल उत्पादन किया। इसी साल इस पाठशाला के किसानों श्री रणबीर मालिक व् मनबीर रेड्हू ने कम्प्यूटर सीख कर ब्लॉग लिखने शुरू किये। कीट साक्षरता केंद्र, निडाना, प्रभात कीट पाठशाला, कृषि चौपाल, निडाना गाम का गोरा व् नौगामा।
इसी के साथ-साथ यहाँ कपास क़ी फसल में देखे गये शाकाहारी व् मांसाहारी कीड़ों के फोटो व् विडिओ नेट पर लोड किये गये।
कोई माने या न माने पर सच्चाई है कि आज निडाना में भी घरों में महिलाओं क़ी चलने लगी। इस को ध्यान रखते हुए 2010 में कपास क़ी फसल में ही जून से लेकर अक्तूबर तक हर मंगलवार को महिला खेत पाठशाला का आयोजन कृषि विभाग के सौजन्य एवं मार्ग दर्शन में आयोजित क़ी गई। इस पाठशाला में भाग लेने वाली तीस महिलाओं में से केवल छ: महिला ही पढ़ी-लिखी थी। पाठशाला क़ी कार्यवाही को तीन जून से ही "महिला खेत पाठशाला" नामक ब्लॉग पर लिखा जाने लगा। मिनी व् सुदेश ने सह्लेखिकाओं क़ी जिम्मेवारी संभाली। इस पाठशाला क़ी कारवाहियों को प्रिंट एवं डिजिटल मिडिया(एक, दो, तीन) में अच्छी कवरेज मिली। हरियाणा के अन्य जिलों व पंजाब से किसानों के अलावा मिडिया कर्मियों, कृषि अधिकारीयों, विज्ञानिकों व प्रोफेसरों ने भी इस महिला खेत पाठशाला के परिदर्शन किये एवं महिलाओं के साथ विस्तार से विचार-विमर्श किया। 25 दिसम्बर,2010 को गाव में कृषि विभाग द्वारा आयोजित खेत दिवस के अवसर पर महिलाओं ने अपनी कीटों के बारे में हासिल इस जानकारी को फ्लेक्स बोर्डों व गीतों क़ी सहायता से गाम व गुहाँडों के हजारों किसानों, कृषि अधिकारीयों व वैज्ञानिकों के सामने रखा। 2011 क़ी साल इन महिलाओं में से छ: महिलाओं ने मास्टर ट्रेनरों के रूप में डैफोडिल पब्लिक स्कूल के छात्रों को "परिवेश पाठशाला" चला क़र कीटों के बारे में जानकारी दी।
निडाना क़ी इन खेत पाठशालाओं के जरिये, यहाँ के किसान अब तक अकेले कपास क़ी फसल में ही 107 किस्म के कीट देख एवं पहचान चुके हैं। इनमे से 80 किस्म के कीड़े तो मांसाहारी व 27 किस्म के शाकाहारी पाए गये। इन शाकाहारी कीड़ों में से केवल 3-4 ही कभी कभार फसल में हानि पहुचाने के स्तर पर पहुँचते हैं। इन कीटों में से 43 कीटों क़ी पहचान क़ी पुष्टि भी हो चुकी है। निडाना गावं के छ: दर्ज़न से अधिक किसान शाकाहारी कीड़ों को काबू करने में मांसाहारी कीड़ों क़ी अचूक भूमिका को स्वीकार करके व अच्छी तरह से आजमा कर अब बगैर कीटनाशकों के ही विषमुक्त खेती करने लगे हैं।
हरियाणा के अस्तित्व में आने के बाद अब तक निडाना क़ी आबादी में ढाई गुना वृद्धि हुई है जबकि दलहनी फसलों को छोड़कर अन्य फसलों क़ी पैदावार में पांच से पंद्रह गुना वृद्धि हुई है। इस दौर में हमें किसी कलमुहे अकाल का मुहं भी नही देखना पड़ा। फिर यह अतिरिक्त आमदनी गई कहाँ? इसका एक हिस्सा तो ब्याह-भात के खर्चों में, बच्चों क़ी फ़ीस में, मकान बनाने में, बिजली खर्च में, डाक्टर व् दवाओं के खर्च में तथा मोबाईल व् मोटरसाईकल का पेट भरने में चला जाता है जबकि इसका बड़ा हिस्सा कृषि में उत्पादन बढ़ाने के लिए ही खर्च हो जाता है। गावं में 2587 एकड़ में जुताई करने के लिए 1966 में एक भी ट्रेक्टर नही था आज 58 हैं। 1966 क़ी जीरो के मुकाबले आज 318 नलकूप हैं। 1966 में एक औंस भी रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नही होता था। आज 10 हजार कट्टे यूरिया व् 4500 कट्टे डी.ए.पी.खाद के इस्तेमाल होते हैं। आज औसतन प्रति एकड़ 1500 रूपये के हिसाब से 38 लाख रुपये तो नाशी रसायनों पर भी खेती में खर्च हो जाते हैं। कीटनाशकों पर इतने खर्च के बावजूद भी कीड़े नियंत्रित नही हो पाए। 20 वीं सदी के अंत व् 21 वीं सदी क़ी शुरुवात में अमेरिकन सुंडी ने कपास के कीट नियंत्रण अखाड़े में व् भूरे फुदके ने धान कीट नियंत्रण अखाड़े में किसानों क़ी कसुती कड़ लगाई। किसानों को फसल में कीटनाशकों के इस्तेमाल से कीट मरते भी नजर आते हैं और फसल में कीट बने भी रहते हैं। कीटों क़ी इस अंतहीन समस्या को किसानों क़ी सक्रीय भागेदारी से जड़मूल से समझने व् बेहतर कीट प्रबंधन के लिए सन 2008 कपास क़ी फसल में कृषि विभाग के सौजन्य से खेत पाठशाला क़ी शुरुवात हुई। इस पाठशाला में अहसास हुआ कि एक तो हमारे खेतों में कपास के पौधों क़ी संख्या बहुत कम है व् दुसरे हमें कीटों क़ी जानकारी भी बहुत कम है। इसीलिए पुख्ता कीट प्रबंधन के लिए कीटों क़ी जानकारी जुटाने के लिए 2009 में किसानों द्वारा अपने खर्चे पर "अपना खेत-अपनी पाठशाला" का आयोजन किया गया। जून से अक्तूबर तक हर मंगलवार को लगाई गई इस पाठशाला में कपास में पाए गये दो दर्जन शाकाहारी कीटों व् चार दर्जन मांसाहारी कीटों क़ी पहचान क़ी गई व् जानकारी जुटाई गई। इसी पाठशाला के दौरान एक नई जानकारी मिली कि जिंक-यूरिया-डी.ए.पी.का 5.5% के घोल का स्प्रे करने से कपास क़ी फसल में पोषण के अलावा छोटे-छोटे कीड़े भी मरते हैं। इस साल एक दर्ज़न किसानों ने बिना किसी कीटनाशक का इस्तेमाल किये कपास का सफल उत्पादन किया। इसी साल इस पाठशाला के किसानों श्री रणबीर मालिक व् मनबीर रेड्हू ने कम्प्यूटर सीख कर ब्लॉग लिखने शुरू किये। कीट साक्षरता केंद्र, निडाना, प्रभात कीट पाठशाला, कृषि चौपाल, निडाना गाम का गोरा व् नौगामा।
इसी के साथ-साथ यहाँ कपास क़ी फसल में देखे गये शाकाहारी व् मांसाहारी कीड़ों के फोटो व् विडिओ नेट पर लोड किये गये।
कोई माने या न माने पर सच्चाई है कि आज निडाना में भी घरों में महिलाओं क़ी चलने लगी। इस को ध्यान रखते हुए 2010 में कपास क़ी फसल में ही जून से लेकर अक्तूबर तक हर मंगलवार को महिला खेत पाठशाला का आयोजन कृषि विभाग के सौजन्य एवं मार्ग दर्शन में आयोजित क़ी गई। इस पाठशाला में भाग लेने वाली तीस महिलाओं में से केवल छ: महिला ही पढ़ी-लिखी थी। पाठशाला क़ी कार्यवाही को तीन जून से ही "महिला खेत पाठशाला" नामक ब्लॉग पर लिखा जाने लगा। मिनी व् सुदेश ने सह्लेखिकाओं क़ी जिम्मेवारी संभाली। इस पाठशाला क़ी कारवाहियों को प्रिंट एवं डिजिटल मिडिया(एक, दो, तीन) में अच्छी कवरेज मिली। हरियाणा के अन्य जिलों व पंजाब से किसानों के अलावा मिडिया कर्मियों, कृषि अधिकारीयों, विज्ञानिकों व प्रोफेसरों ने भी इस महिला खेत पाठशाला के परिदर्शन किये एवं महिलाओं के साथ विस्तार से विचार-विमर्श किया। 25 दिसम्बर,2010 को गाव में कृषि विभाग द्वारा आयोजित खेत दिवस के अवसर पर महिलाओं ने अपनी कीटों के बारे में हासिल इस जानकारी को फ्लेक्स बोर्डों व गीतों क़ी सहायता से गाम व गुहाँडों के हजारों किसानों, कृषि अधिकारीयों व वैज्ञानिकों के सामने रखा। 2011 क़ी साल इन महिलाओं में से छ: महिलाओं ने मास्टर ट्रेनरों के रूप में डैफोडिल पब्लिक स्कूल के छात्रों को "परिवेश पाठशाला" चला क़र कीटों के बारे में जानकारी दी।
निडाना क़ी इन खेत पाठशालाओं के जरिये, यहाँ के किसान अब तक अकेले कपास क़ी फसल में ही 107 किस्म के कीट देख एवं पहचान चुके हैं। इनमे से 80 किस्म के कीड़े तो मांसाहारी व 27 किस्म के शाकाहारी पाए गये। इन शाकाहारी कीड़ों में से केवल 3-4 ही कभी कभार फसल में हानि पहुचाने के स्तर पर पहुँचते हैं। इन कीटों में से 43 कीटों क़ी पहचान क़ी पुष्टि भी हो चुकी है। निडाना गावं के छ: दर्ज़न से अधिक किसान शाकाहारी कीड़ों को काबू करने में मांसाहारी कीड़ों क़ी अचूक भूमिका को स्वीकार करके व अच्छी तरह से आजमा कर अब बगैर कीटनाशकों के ही विषमुक्त खेती करने लगे हैं।
Saturday, December 31, 2011
Tuesday, November 1, 2011
किसानों ने निकाली मरोड़ीये क़ी मरोड़!!
"बी.टी.कपास में मरोड़ीया रहें जा गा। मनै के कह सै?" कहना सै जिला जींद में निडानी गावं के उर्जावान किसान एवं कुशल तरखान श्री आशीन का। पिछले साल मिले कपास के अप्रत्याशित ऊँचे भावों से वशीभूत आशीन ने भी इस साल जिन्दगी में पहली बार बी.टी.कपास की बिजाई कर बेमतलब भोई मोल ले ली। जमीन कमजोर, पानी खराब और बीज बिगड़ैल। कित पार पड़े थी? तीन बार बिजाई करनी पड़ी। तीन हज़ार रुपये का तो बीज ही आया तीन पैकट। किराया भाड़ा व् बुवाई के लगे सो अलग। इस साल भी अच्छे भाव की आश ने आशीन के हौंसले पस्त नही होने दिए। सपने में ग्याभन आशीन आखिरकार अपने इस एक एकड़ कपास के खेत में कपास के 2054 पौधे उगा पाया। तीन पत्तिया ना सही पौधों के चार पत्तिया होते ही नलाई भी शुरू करदी। इसकी कपास में सफ़ेद-मक्खी नाम-मात्र की होने के बावजूद भी देखते-देखते ही 70% पौधों पर पत्ते जरुरत से ज्यादा हरे होने लगे, इन पत्तों की छोटी-छोटी नसें मोटी होने लगी, पत्तियां ऊपर की तरफ मुड़कर कप जैसी दिखाई देने लगी और कहीं-कहीं इन पत्तियों की निचली सतह पर पत्तिनुमा बढ़वार भी दिखाए देने लगी। कृषि ज्ञान केंद्र के विशेषज्ञों से संपर्क किया तो मालूम हुआ कि इस खेत में तो कपास की फसल आरंभिक काल में ही पत्ता-मरोड़ रोग से ग्रसित हो गयी है। अब तो इसमें फूल, फल व् टिंडे लगने मुश्किल हैं। दो-चार पौधे प्रभावित होते तो उन्हें उखाड़ कर जलाया या जमीन में दबाया जा सकता था और इस रोग को फैलने से रोका जा सकता था। इतना ज्यादा प्रकोप होने पर तो कपास के इस खेत को जोत कर, बाजरा की बिजाई करने में ही भलाई है। इतना सुनते ही आशीन की तो पैरों नीचे की जमीन ही खिसक गयी।
मरोड़ीये का थपड़ाया आशीन अगले ही मंगलवार को चितंग नहर के राजबाह़ा न.3 की टेल पर लगने वाली किसान खेत पाठशाला में पहुँच गया। कीड़े पहचानने, गिनने व् नोट करने में क्यूकर मन लागै था। मौका सा देख कर मनबीर को न्यारा टाल लिया अर अपनी कपास की फसल में आये असाध्य रोग "मरोड़ीये" का इलाज पुछ्न लगा. मनबीर कौनसा भला था, हंस कर कहन लगा, " आशीन, मरोड़ चाहे मानस में हो, डांगर में हो या पौधे में। ना तो टूटन की होती अर ना आपां नै इसे तोड़ने की कौशिश करनी चाहिए। फसल को खुराक दे दे जै कुछ बात बन जा तो। एक लीटर पानी में 5.0 ग्रा जिंक सल्फेट, 25 ग्रा यूरिया व् 25 ग्रा डी.ऐ.पी.के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करते रहना। हर 10 वें या 12 वें दिन फिर से करते रहना। और कोई पंगा मोल मत लेना।"
हरियाणे में फंसा होया मानस सबके नुख्से आजमा लिया करै। आशीन भी अपवाद न था। पहले छिड़काव के तीसरे दिन से ही आशीन को उम्मीद बंधने लगी। एक के बाद एक, पूरे पांच स्प्रे ठोक दिए। पहली चुगाई में छ: मन कपास उतरी। पिछले सप्ताह कृषि विज्ञानं केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिकों डा.आर.डी.कौशिक व् डा.यशपाल मलिक ने भी इस खेत का दौरा किया था। मरोड़ीया से भयंकर रूप में ग्रसित पौधों को फलों से लद-पद देखर कर दोनों कृषि वैज्ञानिक भी हैरान थे। "कृषि विज्ञान की प्रस्थापनाओं के विरुद्ध आपकी इस जमीनी हकीकत को इस दुनियां में कौन वैज्ञानिक मानेगा।", डा.मलिक के मुहं से निकला।
" डा.साहिब हमने किसी को मनाने अर मनवाने की कहाँ जरुरत पड़ेगी। म्हारा तो काम पैदावार से चल जायेगा और वो होने जा रही है। वो आप सामने देख ही रहे हो।" उपस्थित किसानों में से एक ने जवाब दिया।
"इन प्रकोपित पौधों पर टिंडों की गिनती करो तथा कुछ सामान्य पौधों पर भी।", डा.कौशिक ने सुझाव दिया।
आशीन ने तुरंत बताना शुरू किया की सर जी, इस खेत में 2054 पौधें हैं। पौधों पर कम से कम 19 टिंडे व् ज्यादा से ज्यादा 197 टिंडे हैं। औसत निकलती है ६९.3 टिंडे प्रति पौधा। पांच फोहों का वजन 22 ग्राम यानि की 4.4 ग्राम प्रति फोहा। इस हिसाब से तो 16-17 मन कपास होने का अनुमान है।", उत्साहित आशीन रके नही रुक रहा था।
मनबीर ने आगे बात बढाते हुए इसी गावं के कृष्ण की भी सफल गाथा सबको सुनाई। कृष्ण के खेत में भी फसल की शुरुवात में ही मरोड़ीया आ गया था। उसने भी यही किया जो आशीन ने किया और उसके खेत में भी 1507 पौधों से 18-20 मन की कपास होने की उम्मीद है। पौधों के हिसाब से तो इस पैदावार को ठीक-ठाक कहा जा सकता है।
मरोड़ीये का थपड़ाया आशीन अगले ही मंगलवार को चितंग नहर के राजबाह़ा न.3 की टेल पर लगने वाली किसान खेत पाठशाला में पहुँच गया। कीड़े पहचानने, गिनने व् नोट करने में क्यूकर मन लागै था। मौका सा देख कर मनबीर को न्यारा टाल लिया अर अपनी कपास की फसल में आये असाध्य रोग "मरोड़ीये" का इलाज पुछ्न लगा. मनबीर कौनसा भला था, हंस कर कहन लगा, " आशीन, मरोड़ चाहे मानस में हो, डांगर में हो या पौधे में। ना तो टूटन की होती अर ना आपां नै इसे तोड़ने की कौशिश करनी चाहिए। फसल को खुराक दे दे जै कुछ बात बन जा तो। एक लीटर पानी में 5.0 ग्रा जिंक सल्फेट, 25 ग्रा यूरिया व् 25 ग्रा डी.ऐ.पी.के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करते रहना। हर 10 वें या 12 वें दिन फिर से करते रहना। और कोई पंगा मोल मत लेना।"
हरियाणे में फंसा होया मानस सबके नुख्से आजमा लिया करै। आशीन भी अपवाद न था। पहले छिड़काव के तीसरे दिन से ही आशीन को उम्मीद बंधने लगी। एक के बाद एक, पूरे पांच स्प्रे ठोक दिए। पहली चुगाई में छ: मन कपास उतरी। पिछले सप्ताह कृषि विज्ञानं केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिकों डा.आर.डी.कौशिक व् डा.यशपाल मलिक ने भी इस खेत का दौरा किया था। मरोड़ीया से भयंकर रूप में ग्रसित पौधों को फलों से लद-पद देखर कर दोनों कृषि वैज्ञानिक भी हैरान थे। "कृषि विज्ञान की प्रस्थापनाओं के विरुद्ध आपकी इस जमीनी हकीकत को इस दुनियां में कौन वैज्ञानिक मानेगा।", डा.मलिक के मुहं से निकला।
" डा.साहिब हमने किसी को मनाने अर मनवाने की कहाँ जरुरत पड़ेगी। म्हारा तो काम पैदावार से चल जायेगा और वो होने जा रही है। वो आप सामने देख ही रहे हो।" उपस्थित किसानों में से एक ने जवाब दिया।
"इन प्रकोपित पौधों पर टिंडों की गिनती करो तथा कुछ सामान्य पौधों पर भी।", डा.कौशिक ने सुझाव दिया।
आशीन ने तुरंत बताना शुरू किया की सर जी, इस खेत में 2054 पौधें हैं। पौधों पर कम से कम 19 टिंडे व् ज्यादा से ज्यादा 197 टिंडे हैं। औसत निकलती है ६९.3 टिंडे प्रति पौधा। पांच फोहों का वजन 22 ग्राम यानि की 4.4 ग्राम प्रति फोहा। इस हिसाब से तो 16-17 मन कपास होने का अनुमान है।", उत्साहित आशीन रके नही रुक रहा था।
मनबीर ने आगे बात बढाते हुए इसी गावं के कृष्ण की भी सफल गाथा सबको सुनाई। कृष्ण के खेत में भी फसल की शुरुवात में ही मरोड़ीया आ गया था। उसने भी यही किया जो आशीन ने किया और उसके खेत में भी 1507 पौधों से 18-20 मन की कपास होने की उम्मीद है। पौधों के हिसाब से तो इस पैदावार को ठीक-ठाक कहा जा सकता है।
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